Sunday, 31 May 2020

"कबीर परमेश्वर" जी का अन्य वेश में छठे दिन मिलना’’ चौपाई

"कबीर परमेश्वर" जी का अन्य वेश में छठे दिन मिलना’’
चौपाई

दिवस पाँच जब ऐसहि बीता। निपट विकल हिय व्यापेउ चिन्ता।।
छठयें दिन अस्नान कहँ गयऊ। करि अस्नान चिंतवन कियऊ।।
पुहुप वाटिका प्रेम सोहावन। बहु शोभा सुन्दर शुठि पावन।।
तहां जाय पूजा अनुसारा। प्रतिमा देव सेव विस्तारा।।
खोलि पेटारी मूर्ति निकारी। ठाँव ठाँव धरि प्रगट पसारी।।
आनेउ तोरि पुहुप बहु भाँती। चौका विस्तार कीन्ही यहि भाँती।।
भेष छिपाय तहाँ प्रभु आये। चौका निकटहिं आसन लाये।।
धर्मदास पूजा मन लाये। निपट प्रीति अधिक चित चाये।।
मन अनुहारि ध्यान लौलावई। कहि कहि मंत्रा पुहुप चढ़ावई।।
चन्दन पुष्प अच्छत कर लेही। निमित होय प्रतिमा पर देही।।
चवर डोलावहिं घण्ट बजायी। स्तुति देव की पढ़ैं चित लायी।।
करि पूजा प्रथमहि शिर नावा। डारि पेटारी मूर्ति छिपावा।।
सतगुरू बचन
अहो सन्त यह का तुम करहूँ। पौवा सेर छटंकी धरहूँ।।
केहि कारण तुम प्रगट खिडायहु। डारि पेटारी काहे छिपायेहु।।
धर्मदास बचन
बुद्धि तुम्हार जान नहि जाई। कस अज्ञानता बोलहु भाई।।
हम ठाकुर कर सेवा कीन्हा। हम कहँ गुरू सिखावन दीन्हा।।
ता कहँ सेर छटंकी कहहूँ। पाहन रूप ना देव अनुसरहूँ।।
सतगुरू बचन
अहो संत तुम नीक सिखावा। हमरे चित यक संशय आवा।।
एक दिन हम सुनेउ पुराना। विप्रन कहे ज्ञान सुनिधाना।।
वेद वाणि तिन्ह मोहि सुनावा। प्रभु कै लीला सुनि मन भावा।।
कहे प्रभु वह अगम अपारा। अगम गहे नहि आव अकारा।।
सुनेउँ शीश प्रभुकेर अकाशा। पग पताल तेहि अपर निवाशा।।
एकै पुरूष जगत कै ईसा। अमित रूप वह लोचन अमीसा।।
सोकित पोटली माहि समाहीं। अहो सन्त यह अचरज आहीं।।
औ गुरू गम्य मैं सुना रे भाई। अहैं संग प्रभु लखौ न जाई।।
अहो सन्त मैं पूछहुँ तोहीं। बात एक जो भाषो मोहीं।।
यहि घटमहँ को बोलत आही। ज्ञानदृष्टि नहि सन्त चिन्हाही।।
जौ लगि ताहि न चीन्हहुँ भाई। पाहन पूजि मुक्ति नहिं पाई।।
कोटि कोटि जो तीर्थ नहाओ। सत्यनाम विन मुक्ति न पाओ।।
जिन सुन्दर यह साज बनाया। नाना रंग रूप उपजाया।।
ताहि न खोजहु साहु के पूता। का पाहन पूजहु अजगूता।।
धर्मदास सुनि चक्रित भयऊ। पूजा पाती बिसरि सब गयऊ।।
एक टक मुख जो चितवत रहाई। पलकौ सुरति ना आनौ जाई।।
प्रिय लागै सुनि ब्रह्मका ज्ञाना। विनय कीन्ह बहु प्रीति प्रमाना।।
धर्मदास वचन (ज्ञान प्रकाश पृष्ठ 16)
अहो साहब तब बात पियारी। चरण टेकि बहु विनय उचारी।।
अहो साहब जस तुम्ह उपदेशा। ब्रह्मज्ञान गुरू अगम संदेशा।।
छठयें दिवस साधु एक आये। प्रीय बात पुनि उनहु सुनाये।।
अगम अगाधि बात उन भाखा। कृत्रिम कला एक नहिं राखा।।
तीरथ व्रत त्रिगुण कर सेवा। पाप पुण्य वह करम करेवा।।
सो सब उन्हहि एक नहिं भावै। सबते श्रेष्ठ जो तेहि गुण गावै।।
जस तुम कहेहु बिलोई बिलोई। अस उनहूँ मोहि कहा सँजोई।।
गुप्त भये पुनि हम कहँ त्यागी। तिन्ह दरशन के हम बैरागी।।
मोरे चित अस परचै आवा। तुम्ह वै एक कीन्ह दुइ भावा।।
तुम कहाँ रहो कहो सो बाता। का उन्ह साहब कहँ जानहु ताता।।
केहि प्रभु कै तुम सुमिरण करहू। कहहु बिलोइ गोइ जनि धरहू।।
सतगुरू वचन
अहो धर्मदास तुम सन्त सयाना। देखौ तोहि में निरमल ज्ञाना।।
धर्मदास मैं उनकर सेवक। जहँहि सो भव सार पद भेवक।।
जिन कहा तुमहिं अस ज्ञाना। तिन साहेब कै मोहि सहिदाना।।
वे प्रभु सत्यलोकके वासी। आये यहि जग रहहि उदासी।।
नहिं वौ भग दुवार होइ आये। नहिं वो भग माहिं समाये।।
उनके पाँच तत्त्व तन नाहीं। इच्छा रूप सो देह नहिं आहिं।।
निःइच्छा सदा रहँहीं सोई। गुप्त रहहिं जग लखै न कोई।।
नाम कबीर सन्त कहलाये। रामानन्द को ज्ञान सुनाये।।
हिन्दू तुर्क दोउ उपदेशैं। मेटैं जीवन केर काल कलेशैं।।
माया ठगन आइ बहु बारी। रहैं अतीत माया गइ हारी।।
तिनहि पठावा मोहे तोहि पाही। निश्चय उन्ह सेवक हम आही।।
अहो सन्त जो तुम कारज चहहू। तो हमार सिखावन चित दे गहहू।।
उनकर सुमिरण जो तुम करिहौ। एकोतर सौ वंशा लै तरिहौ।।
वो प्रभु अविगत अविनाशी। दास कहाय प्रगट भे काशी।।
भाषत निरगुण ज्ञान निनारा। वेद कितेब कोइ पाव न पारा।।
तीन लोक महँ महतो काला। जीवन कहँ यम करै जंजाला।।
वे यमके सिर मर्दन हारे। उनहि गहै सो उतरै पारे।।
जहाँ वो रहहि काल तहँ नाहीं। हंसन सुखद एक यह आही।।
धर्मदास वचन (ज्ञान प्रकाश पृष्ठ 17)
अहो साहब बलि बलि जाऊँ। मोहिं उनके सँदेश सुनाऊँ।।
मोरे तुम उनहीं सम आही। तुम वै एक नाहिं बिलगाई।।
नाम तुम्हार काह है स्वामी। सो भाषहु प्रभु अन्तर्यामी।।
सतगुरू वचन
धर्मनि नाम साधु मम आही। सन्तन माँह हम सदा रहाही।।
साधु संगति निशिदिन मन भावै। सन्त समागम तहाँ निश्चय जावैं।।
जो जिव करै साधु सेवकाई। सो जिव अति प्रिय लागै भाई।।
हमरे साहिब की ऐसन रीति। सदा करहिं सन्त समागम सो प्रीती।।
जो जिव उन्हकर दीक्षा लेहीं। साधू सेव सिखावन देहीं।।
जीव पर दया अरू आतम पूजा। सतपुरूष भक्ति देव नहिं दूजा।।
सद्गुरू संकट मोचक आहीं। सच्चि भक्ति छुवैं यम नाहीं।।
धर्मदास बचन (ज्ञान प्रकाश पृष्ठ 18)
अहो साहब तुम्ह अविगत अहहू। अमृत वचन तुम निश्चय कहहू।।
हे प्रभु पूछेऊँ बात दुइ चारा। अब मैं परिचय भेद विचारा।।
सो तो हम नहिं जानहिं स्वामी। तुम कहहु प्रभु अंतरयामी।।
सतगुरू वचन
अहो धर्मदास तुम्ह भल यह भाखो। कहो सो जो प्रतीति तुम राखो।।
अहहु निगुरा कि गुरू कीन्हूँ भाई। तौन बात मोहि कहहु बुझाई।।
धर्मदास वचन
समर्थ गुरू हमने कीन्हा। यह परिचे गुरू मोहि न दीन्हा।।
रूपदास विठलेश्वर रहहीं। तिनकर शिष्य सुनहुँ हम अहहीं।।

उन मोहिं इहे भेद समुझावा। पूजहु शालिग्राम मन भावा।।
गया गोमती काशी परागा। होइ पुण्य शुद्ध जनम अनुरागा।।
लक्ष्मी नारायण शिला कै दीन्हा। विष्णु पंजर पुनि गीता चीन्हा।।
जगन्नाथ बलभद्र सहोद्रा। पंचदेव औरो योगीन्द्रा।।
बहुतैं कही प्रमोध दृढ़ाई। विष्णुहिं सुमिरि मुक्ति होइ भाई।।
गुरू के वचन शीश पर राखा। बहुतक दिन पूजा अभिलाखा।।
तुम्हरे भेष मिले प्रभु जबते। तुम बानी प्रिय लागी तबते।।
वे गुरू तुम्हहीं सतगुरू अहहू। सारभेद मोहिं प्रभु कहहू।।
तुम्हरा दास कहाउब स्वामी। यमते छोड़ावहु अन्तरयामी।।
उनहूँ कर नाहीं निन्द करावै। अस विश्वास मोरे मन आवै।।
वह गुरू सर्गुण निर्गुण पसारा। तुमहौ यमते छोड़ावनहारा।।
सतगुरू वचन
सुनु धर्मनि जो तव मन इच्छा। तौ तोहिं देउँ सार पद दिच्छा।।
दो नाव पर जो होय असवारा। गिरे दरिया में न उतरे पारा।।
तुम अब निज भवन चलि जाऊ। गुरू परीक्षा जाइ कराऊ।।
अब तुम रूपदास पै जाओ। अपना संसा दूर कराओ।।
जो गुरू तुम्हैं न कहैं सँदेशा। तब हम तुम्ह कहँ देवें उपदेशा।।
धर्मदास वचन
(ज्ञान प्रकाश पृष्ठ 19)
हे साहेब एक आज्ञा चाहों। दया करो कछु प्रसाद लै आवों।।
सतगुरू वचन
हे धर्मदास मोहि इच्छा नाहीं। छुधा न व्यापै सहज रहाहीं।।
सत्यनाम है मोर अधारा। भक्ति भजन सतसंग सहारा।।
धर्मदास वचन
अहो साहब जो अन्न न खाहू। तो मोरे चितकर मिटै न दाहू।।
सतगुरू वचन
तुमरी इच्छा तो ल्यावहु भाई। अन्न खायें तब हम जाई।।
धर्मदास उठि हाट सिधाये। बतासा पेड़ा रूचि लै आये।।
धरेउ मोर आगे भाव ऊचेरा। विनय भाव कीन्ह बहुतेरा।।
विमल भाव किन्हा धर्मदासा। खाया प्रसाद पेड़ा पतासा।।
अहो साहु अब अज्ञा देहू। गुरू पहँ जाय मैं आशिष लेहू।।
धर्मदास वचन
करि दण्डवत धर्मनि कर जोरी। अब कब सुदिन होई मोरी।।
तेहि दिन सुदिन लेखे प्रभुराई। जेहि दिन तुव पुनः दरशन पाई।।
हम कहँ निज चेरा करि जानो। सत्य कहौं निश्चय करि मानो।।
आशिष दै प्रभु चले तुरन्ता। अबिगति लीला लखे को अन्ता।।
धर्मदास चितवहिं मगु ठाढो। उपजा प्रेम हृदय अति गाढो।।
भावार्थ :- धर्मदास जी ने परमेश्वर कबीर जी से कहा कि हे प्रभु! आपकी आज्ञा हो तो
कुछ प्रसाद खाने को लाऊँ। परमात्मा ने कहा कि मुझे क्षुधा (भूख) नहीं लगती। मैं सतनाम
स्मरण के आधार रहता हूँ। धर्मदास जी ने कहा कि यदि आप मेरा अन्न नहीं खाओगे तो
मेरी दाह यानि तड़फ समाप्त नहीं होगी। आप अवश्य कुछ भोग लगाओ। तब परमेश्वर
कबीर जी ने कहा कि जो तेरी इच्छा है, ले आ। धर्मदास दुकान से बतासे और पेड़े ले आया।
धर्मदास का सच्चा भाव देखकर परमात्मा जी ने भोग लगाया। फिर कहा कि हे साहु (सेठ)
धर्मदास! मुझे आज्ञा दे, मैं अपने गुरू जी के पास काशी में जाकर आशीर्वाद ले लुँ। धर्मदास
जी ने कहा कि प्रभु! अब पुनः मेरे कब अच्छे दिन आएँगे? मेरे वह सुदिन लेखे में होंगे जब
आप पुनः मुझे मिलोगे। आप मुझे अपना दास मान लो, मैं विश्वास के साथ कह रहा हूँ।
प्रभु कबीर जी धर्मदास को आशीर्वाद देकर चल पड़े। धर्मदास उस रास्ते को देखता रहा
और हृदय में परमात्मा के प्रति विशेष प्रेम उमड़ रहा था।

3 comments:

Rakhi Dasi said...

Very good information for real God....👍🙏🙏

World Victoria Sant said...

Nice blog

Shalu said...

अतिसुंदर पोस्ट...
👌👌☑️