"सतगुरू की भूमिका"
पारख के अंग की वाणी नं. 117.122 :-
गरीब, कदली बीच कपूर है, ताहि लखै नहीं कोय। पत्रा घूंघची बर्ण है, तहां वहां लीजै जोय।।117।।
गरीब, गज मोती मस्तक रहै, घूमै फील हमेश। खान पान चारा नहीं, सुनि सतगुरु उपदेश।।118।।
गरीब, जिनकी अजपा ध्वनि लगी, तिनका योही हवाल। सो रापति पुरूष कबीर के, मस्तक जाकै लाल।।119।।
गरीब, सीप समंदर में रहै, बूठै स्वांति समोय। वहां गज मोती जदि भवै, तब चुंबक चिडिया होय।।120।।
गरीब, चुंबक चिडिया चंच भरि, डारै नीर बिरोल। जदि गज मोती नीपजै, रतन भरे चहंडोल।।121।।
गरीब, चुंबक तो सतगुरु कह्या, स्वांति शिष्य का रूप। बिन सतगुरु निपजै नहीं, राव रंक और भूप।।122।।
सरलार्थ :- इन वाणियों में सतगुरू की भूमिका प्रमाण सहित समझाई है। कहा है कि
(कदली) केले के पेड़ के कोइए (केले का पूरा पेड़ पत्तों ही से निर्मित है। सबसे ऊपर वाला
पत्ता गोलाकार में कीप की तरह ऊपर से चौड़ा गोलाकार नीचे कम परिधि का होता है। बीच
में (थोथा) खाली होता है। उस गोल पत्ते के खाली भाग को कोइया कहते हैं।) में स्वाति
नक्षत्रा की वर्षा की बूँद गिर जाती है तो उस केले के पत्ते में कपूर बन जाता है। केला शिष्य
है। स्वांति सतगुरू का मंत्रा नाम है। नाम यदि योग्य शिष्य को दिया जाता है तो उसमें भक्ति
रूपी कपूर तैयार होता है। मोक्ष मिलता है।
अन्य उदाहरण (गज) हाथी का दिया है। कहा है कि हाथी के मस्तिक में एक स्थान
परमात्मा ने बनाया है। श्वांति नक्षत्रा की बारिश की बूँद ‘‘चुंबक’’ नाम की चिडि़या पृथ्वी पर
गिरने से पहले अपने मुख में ग्रहण कर लेती है। वह कभी-कभी हाथी के मस्तक पर बैठी होती है। उसका स्वभाव है कि बारिश की बूँद को मुख में डालूँ। फिर उसका कुछ अंश मुख
से नीचे गिर जाता है। वह उस हाथी के मस्तक में बने सुराख में गिर जाता है। उससे हाथी
के माथे में बने सुराख में अंदर-अंदर मोती बनने लग जाते हैं। जैसे माता का गर्भ का बच्चा
बढ़ता है तो माता का पेट भी बढ़ता रहता है। फिर समय आने पर बच्चा सुरक्षित जन्म लेता
है। इसी प्रकार हाथी के उस मोती उद्गम सुराख में कई चुंबक चिडि़या श्वांति की बूँदें डाल
देती हैं। हाथी के मस्तक वाले मोती उद्गम स्थान में सैंकड़ों मोती तैयार हो जाते हैं। समय
पूरा होने पर अपने आप निकलने लगते हैं। ढ़ेर लग जाता है। यह स्थान सब हाथियों में
नहीं होता।
इसमें हाथी शिष्य है। चुंबक चिडि़या सतगुरू है। श्वांति बूंद नाम है। जैसे ऐसे सतगुरू
रूप चुंबक चिडि़या सच्चे नाम रूपी श्वांति शिष्य के हृदय में डालते हैं। भक्ति तथा मोक्ष रूपी
मोती बनते हैं।
जिस हाथी के मस्तक के अंदर मोती होते हैं। उसे अंदर ही अंदर नशा हो जाता है।
वह मस्ती में मतवाला होकर घूमता रहता है। चारा खाना भी छोड़ देता है। जिन साधकों
ने सतगुरू जी से उपदेश सुनकर दीक्षा लेकर सच्चे मन से अजपा जाप जपा तो उनकी ऐसी
ही दशा हो जाती है। वे कबीर परमात्मा के (रापति) हाथी हैं जिनके हृदय में भक्ति रूपी
लाल बन रहा है।
अन्य उदाहरण सीप का दिया है। सीप (सीपि) एक जल की जीव है। समुद्र में रहती
है। समुद्र का जल खारा होता है। जिस समय बारिश होने को होती है, तब समुद्र का जल
अंदर से कुछ गर्म होता है। उस ऊष्णता से सीप को बेचैनी होती है। वह जल के ऊपर
आकर मुख खोल लेती है। यदि उस समय बारिश की बूँदें गिर जाती हैं तो सीप को शांति
हो जाती है। अपना मुख बंद कर लेती है। उस जल को जो सीप के मुख में गिरा, श्वांति
कहते हैं। जिस सीप में श्वांति गिरी, उसमें मोती बन जाता है। कुछ समय उपरांत परिपक्व
होकर मोती जल में गिर जाता है। इस उदाहरण में सीप शिष्य है। श्वांति दीक्षा मंत्रा हैं।
बादल सतगुरू है। सीप से मोती अपने आप नहीं निकलता। एक सुकच मीन है। वह मोती
के ऊपर के माँस को खाने के लिए उसको टक्कर मारती है कि इस माँस के अंदर घुसकर
खाऊँगी। परंतु वह माँस मात्रा प्याज के जाले जैसा रक्त वर्ण का होता है। सुकच मछली की
टक्कर से मोती सीप से निकलकर समुद्र में गिर जाती है। सुकच मीन सार शब्द है। श्वांती
सतनाम है। यदि सुकच मीन टक्कर नहीं मारती है तो वह मोती सीप में ही गलकर नष्ट हो
जाता है।
गरीब सुकच मीन मिलता ना भाई, तो श्वांति सीप अहले जाई।
अर्थात् संत गरीबदास जी ने बताया है कि यदि सुकच मछली नहीं मिलती तो सीप
तथा उसमें गिरी श्वांति (अहले) व्यर्थ जाती। सुकच मछली सारशब्द जानो। सारशब्द
सतनाम के जाप को सफल करता है। सतगुरू सारशब्द देता है।
इसी प्रकार भक्त को प्रथम नाम, द्वितीय नाम (सतनाम) मिल गए। सारनाम नहीं
मिला तो मोक्ष नहीं होगा। वह जीवन व्यर्थ गया। परंतु अगला मनुष्य जन्म (स्त्रा-पुरूष का) मिलेगा। उस जन्म में सतगुरू मिले और सब तीनों नाम मिल गए तो मोक्ष हो जाएगा।
सतगुरू के बिना जीव का कल्याण संभव नहीं।
वाणी नं. 123.125 :-
गरीब, अधरि सिंहासन गगनि में, बौहरंगी बरियाम। जाका नाम कबीर है, सारे सब के काम।।123।।
गरीब,पड़ाधनीसे काम है,प्रहलाद भगतिकूंबूझि। नरसिंहउतर्याअर्शसैं,किन्हैंनसमझीगूझि।।124।।
गरीब, नर मगेश आकार होय, कीन्ही संत सहाय। बालक वेदन जगतगुरु, जानत है सब माय।। ृ 125।।
सरलार्थ :- परमात्मा कबीर जी का (अधर) ऊपर सतलोक में सिंहासन है। वह सब
भक्तों के कार्य सिद्ध करता है।
प्रहलाद भक्त को धणी (परमात्मा) से काम पड़ा तो परमात्मा ने उसका कार्य सिद्ध
किया। प्रहलाद भक्त से पता करो कि कैसी अनहोनी परमात्मा ने की थी। परमात्मा समर्थ
कबीर (अर्श) आकाश से उतरा था। हिरण्यकशिपु को मारा था।
(नर) मानव (मृगेश) सिंह रूप बनाकर संत प्रहलाद की सहायता की थी। जैसे बच्चा
भूखा-प्यासा होता है तो उसकी (बेदन) पीड़ा (कष्ट) को माता जानती है। दूध-जल पिलाती
है। ऐसे जगतगुरू अपने शिष्य के कष्ट को जानता है। अपने आप कष्ट निवारण कर देता है।
वाणी नं. 126.133 :-
गरीब, इस मौले के मुल्क में, दोनौं दीन हमार। एक बामे एक दाहिनै, बीच बसै करतार।।126।।
गरीब, करता आप कबीर है, अबिनाशी बड़ अल्लाह। राम रहीम करीम है, कीजो सुरति निगाह।।127।।
गरीब, नर रूप साहिब धनी, बसै सकल कै मांहि। अनंत कोटि ब्रह्मंड में, देखौ सबहीं ठांहि।।128।।
गरीब, घट मठ महतत्त्व में बसै, अचरा चर ल्यौलीन। च्यारि खानि में खेलता, औह अलह बेदीन।।129।।
गरीब, कौन गडै कौन फूकिये, च्यार्यौं दाग दगंत। औह इन में आया नहीं, पूरण ब्रह्म बसंत।।130।।
गरीब, मात पिता जाकै नहीं, नहीं जन्म प्रमाण। योह तो पूरण ब्रह्म है, करता हंस अमान।।131।।
गरीब, आतम और प्रमात्मा, एकै नूर जहूर। बिच कर झ्यांई कर्म की, तातैं कहिये दूर।।132।।
गरीब, परमात्म पूरण ब्रह्म है, आत्म जीव धर्म। कल्प रूप कलि में पड्या, जासैं लागे कर्म।।133।।
सरलार्थ :- परमात्मा के सब जीव हैं। दोनों धर्म (हिन्दू तथा मुसलमान) हमारे हैं। एक
परमात्मा के दायीं ओर जानो, दूसरा बायीं ओर। दोनों के मध्य में परमात्मा निवास करता
है।(126)
कबीर जी स्वयं ही सृष्टि के रचयिता हैं। अविनाशी (बड़) बड़ा (अल्लाह) परमात्मा हैं।
राम कहो, रहीम कहो। (करीम) दयालु हैं। (किजो सुरति निगाह) ध्यान से देखो यानि विचार
करो।(127)
परमात्मा (नर) मानव रूप में हैं। सबका (धनी) मालिक सर्वव्यापक है।(128.129)
कोई तो मुर्दे को पृथ्वी में गाड़ देता है। कब्र बनाता है। कोई अग्नि में जला देता है।
यह सब मुझे (कबीर परमेश्वर जी को) अच्छा नहीं लगता। पूर्ण मुक्ति प्राप्त करो। वह तो
(परमात्मा) चारों दागों में नहीं आता। एक जमीन में गाड़ते हैं। एक धर्म अग्नि में जला देता
है। एक जल प्रवाह कर देता है। एक जंगल में पक्षियों के खाने के लिए डाल देता है। ये
चार दाग कहे जाते हैं। परंतु परमात्मा कबीर जी किसी दाग में नहीं आया अर्थात् अजर-अमर है कबीर जी।(130)
परमात्मा के कोई माता-पिता नहीं हैं। उनके जन्म का कहीं पर प्रमाण नहीं है। कबीर
परमात्मा पूर्ण ब्रह्म भक्तों को (अमान) शांति प्रदान करता है।(131)
आत्मा तथा परमात्मा की एक जैसी छवि है। बीच में पाप कर्मों का (झांई) मैल है।
इसलिए परमात्मा जीव से दूर कहा जाता है।(132)
परमात्मा तो पूर्ण ब्रह्म बताया है। आत्मा जीव धर्म से जन्मती-मरती है। इसलिए जीव
धर्म में है।(133)
वाणी नं. 134.141 :-
गरीब, कर्म लगे शिब बिष्णु कै, भरमें तीनौं देव। ब्रह्मा जुग छतीस लग, कछू न पाया भेव।।134।।
गरीब, शिब कूं ऐसा बर दिया, अपनेही परि आय। भागि फिरे तिहूं लोक में, भस्मागिर लिये ताय।।135।।
गरीब, बिष्णु रूप धरि छल किया, मारे भसमां भूत। रूप मोहिनी धरि लिया, बेगि सिंहारे दूत।।136।।
गरीब, शिब कूं बिंदु जराईयां, कंदर्प कीया नांस। फेरि बौहरि प्रकाशियां, ऐसी मनकी बांस।।137।।
गरीब, लाख लाख जुग तप किया, शिब कंदर्प कै हेत। काया माया छाडि़ करि, ध्यान कंवल शिब श्वेत।।138।।
गरीब, फूक्या बिंदु बिधान सैं, बौहर न ऊगै बीज। कला बिश्वंभर नाथ की, कहां छिपाऊं रीझ।।139।।
गरीब, पारबती पत्नी पलक परि, त्रिलोकी का रूप। ऐसी पत्नी छाडि़ करि, कहां चले शिब भूप।।140।।
गरीब, रूप मोहनी मोहिया, शिब से सुमरथ देव। नारद मुनि से को गिनै, मरकट रूप धरेव।।141।।
वाणी नं. 134.136 का सरलार्थ :- सूक्ष्म मन की मार सर्व जीवों पर गिरती है। सब
एक समान सूक्ष्म मन के सामने विवश हैं। जब तक पूर्ण सतगुरू नहीं मिलता, तब तक सूक्ष्म
मन के सामने विवेक कार्य नहीं करता। हिन्दू धर्म के श्रद्धालु श्री शिव जी को तो सक्षम मानते
हैं। सब देवों का देव यानि महादेव कहते हैं। सूक्ष्म मन के कारण वे भी मार खा गए।
प्रमाण :- जिस समय भस्मासुर ने तप करके भस्मकण्डा श्री शिव जी से वचनबद्ध
करके ले लिया था। तब भस्मासुर ने शिव से कहा कि मैं तेरे को भस्म करूँगा। तेरे को
मारकर तेरी पत्नी पार्वती को अपनी पत्नी बनाऊँगा। तब भय के कारण श्री शिव जी भाग
लिए। भस्मासुर में भी सिद्धियां थी। वह भी साथ दौड़ा। शिवजी भय के कारण अधिक गति
से दौड़ा तथा एक मोड़ पर मुड़ गया। उसी मोड़ पर एक सुंदर स्त्रा खड़ी थी। उसने
भस्मासुर की ओर अश्लील दृष्टि से देखा और बोली कि शिव तो आसपास रूकेगा नहीं,
जाने दे। आजा मेरे साथ मौज-मस्ती कर ले। मैं तेरा ही इंतजार कर रही हूँ। तुम पूर्ण मर्द
हो, शक्तिशाली हो। भस्मासुर पर काम वासना का भूत सवार था ही, उसे और क्या चाहिए
था? उसी समय रूक गया। युवती ने उसका हाथ पकड़कर नचाया। गंडहथ नृत्य करते
समय हाथ सिर पर करना होता है। भस्मासुर का भस्मकण्डे वाला हाथ भस्मासुर के सिर पर
करने को युवती ने कहा कि इस नृत्य में दायां हाथ सिर पर करते हैं। यह नृत्य पूरा करके
मिलन करेंगे। ज्यों ही भस्मासुर ने भस्मकण्डे वाला हाथ सिर पर किया तो युवती ने बोला
भस्म। उसी समय भस्मासुर जलकर नष्ट हो गया। वह युवती भगवान स्वयं ही शिव शंकर
की जान की रक्षा के लिए बने थे।, परंतु महिमा विष्णु को दी। विष्णु रूप में प्रकट होकर
परमात्मा उस भस्मकण्डे को लेकर श्री शिव के सामने खडे़ हो गए तथा शिव से कहा हे शिव! इतने तेज क्यों दौड़ रहे हो? शिव ने सब बात बताई कि आप भी दौड़ जाओ। भस्मासुर मुझे
मारने को मेरे पीछे लगा है। तब विष्णु रूपधारी परमात्मा ने कहा कि देख! आपका
भस्मकण्डा मेरे पास है। शिव ने तुरंत पहचान लिया और रूककर पूछा कि यह आपको कैसे
मिला? विश्वास नहीं हो रहा था। भगवान ने कहा यह न पूछ। अपना कण्डा लो और घर
को जाओ। परंतु शिव को विश्वास नहीं हो रहा था कि उग्र रूप धारण किए भस्मासुर से कैसे
ये भस्मकण्डा लिया। जिद कर ली। तब परमात्मा ने कहा कि फिर बताऊँगा। इतना कहकर
अंतर्ध्यान (अदृश्य) हो गए। शिव कुछ आगे गया तो देखा कि एक अति सुंदर युवती
अर्धनग्न शरीर में मस्ती से एक बाग में टहल रही थी। दूर तक कोई व्यक्ति दिखाई नहीं
दे रहा था। शिवजी ने इधर-उधर देखा और लड़की की ओर मिलन के उद्देश्य से चले।
लड़की शिव को देखकर मुस्कुराकर आगे को कुछ तेज चाल से चटक-मटककर चल पड़ी।
शिव ने बड़ी मसक्कत करने के बाद लड़की का हाथ पकड़ा। तब तक शिव का वीर्यपतन
हो चुका था। उसी समय विष्णु रूप में परमात्मा खड़े थे और कहा कि मैंने भस्मासुर को इस
प्रकार वश में करके गंडहथ नाच नचाकर भस्म किया है।
संत गरीबदास जी ने सूक्ष्म मन की शक्ति बताई है कि शिवजी की पत्नी पार्वती तीन
लोक में अति सुंदर स्त्रियों में से एक थी। अपनी पत्नी को छोड़कर शिवजी ने चंचल माया
यानि बद नारी से मिलन (ैमग) करने के लिए उसे पकड़ लिया। यह सूक्ष्म मन की उत्पत्ति
का उत्पात है।
वाणी नं. 137.141 का सरलार्थ :-
इन्हीं काल प्रेरित आत्माओं (देवियों) ने ब्रह्मादिक (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) को भी मोहित
कर लिया यानि अपने जाल में फँसा रखा है। शेष यानि अन्य बचे हुए गणेश जी भी स्त्रा
से संग में रहे। गणेश जी के दो पुत्रा थे। एक का नाम शुभम्=शुभ, दूसरे लाभम्=लाभ था।
शंकर (शिव जी) की अडिग (विचलित न होने वाली) समाधि (आंतरिक ध्यान) लगी थी जो
हमेशा (सदा) ध्यान में रहते हैं। उनको भी मोहिनी अप्सरा (स्वर्ग की देवी) ने मोहित करके
डगमग कर दिया था।
3 comments:
Nice post
True spiritual knowlegde
Nice
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